Wednesday, July 17, 2013

Swami Vivekananda's 1893 Chicago speech (150th birth anniversary year)

Sisters and Brothers of America


It fills my heart with joy unspeakable to rise in response to the warm and cordial welcome which you have given us. l thank you in the name of the most ancient order of monks in the world; I thank you in the name of the mother of religions; and I thank you in the name of the millions and millions of Hindu people of all classes and sects. My thanks, also, to some of the speakers on this platform who, referring to the delegates from the Orient, have told you that these men from far-off nations may well claim the honor of bearing to different lands the idea of toleration.I am proud to belong to a religion which has taught the world both tolerance and universal acceptance. We believe not only in universal toleration, but we accept all religions as true. I am proud to belong to a nation which has sheltered the persecuted and the refugees of all religions and all nations of the earth. I am proud to tell you that we have gathered in our bosom the purest remnant of the Israelites, who came to the southern India and took refuge with us in the very year in which their holy temple was shattered to pieces by Roman tyranny. I am proud to belong to the religion which has sheltered and is still fostering the remnant of the grand Zoroastrian nation. I will quote to you, brethren, a few lines from a hymn which I remember to have repeated from my earliest boyhood, which is every day repeated by millions of human beings:
As the different streams having there sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to thee.
The present convention, which is one of the most august assemblies ever held, is in itself a vindication, a declaration to the world, of the wonderful doctrine preached in the Gita:
Whosoever comes to Me, through whatsoever form, I reach him; all men are struggling through paths which in the end lead to me.
Sectarianism, bigotry, and its horrible descendant, fanaticism, have long possessed this beautiful earth. They have filled the earth with violence, drenched it often and often with human blood, destroyed civilization, and sent whole nations to despair. Had it not been for these horrible demons, human society would be far more advanced than it is now. But their time is come; and I fervently hope that the bell that tolled this morning in honor of this convention may be the death-knell of all fanaticism, of all persecutions with the sword or with the pen, and of all uncharitable feelings between persons wending their way to the same goal.

Sunday, July 7, 2013

अयोध्या: राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद का इतिहास

पढ़ें - अयोध्या मामलाः 21 साल, 13 बेंच, 18 जज

अयोध्या विवाद को दशकों बीत रहे हैं। मसला आज भी जस का तस है। विवाद इस बात पर है कि देश के हिंदूओं की मान्यता के अनुसार अयोध्या की विवादित जमीन भगवान राम की जन्मभूमि है जबकि देश के मुसलमानों की पाक बाबरी मस्जिद भी विवादित स्थल पर स्थित है। मुस्लिम सम्राट बाबर ने फतेहपुर सीकरी के राजा राणा संग्राम सिंह को वर्ष 1527 में हराने के बाद इस स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था। बाबर ने अपने जनरल मीर बांकी को क्षेत्र का वायसराय नियुक्त किया। मीर बांकी ने अयोध्या में वर्ष 1528 में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया।  इस बारे में कई तह के मत प्रचलित हैं कि जब मस्जिद का निर्माण हुआ तो मंदिर को नष्ट कर दिया गया या बड़े पैमाने पर उसमे बदलाव किये गए। कई वर्षों बाद आधुनिक भारत में हिंदुओं ने फिर से राम जन्मभूमि पर दावे करने शुरू किये जबकि देश के मुसलमानों ने विवादित स्थल पर स्थित बाबरी मस्जिद का बचाव करना शुरू किया। प्रमाणिक किताबों के अनुसार पुन: इस विवाद की शुरुआत सालों बाद वर्ष 1987 में हुई। वर्ष 1940 से पहले मुसलमान इस मस्जिद को मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहते थे, इस बात के भी प्रमाण मिले हैं।

 वर्ष 1947- भारत सरकार ने मुस लमानों के विवादित स्थल से दूर रहने के आदेश दिए और मस्जिद के मुख्य द्वार पर ताला डाल दिया गया जबकि हिंदू श्रद्धालुओं को एक अलग जगह से प्रवेश दिया जाता रहा।

 वर्ष 1984- विश्व हिंदू परिषद ने हिंदुओं का एक अभियान शिरू किया कि हमें दोबारा इस जगह पर मंदिर बनाने के लिए जमान वापस चाहिए। 

वर्ष 1989- इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल देना चाहिए और इस जगह को हमेशा के लिए हिंदुओं को दे देना चाहिए। सांप्रदायिक ज्वाला तब भड़की जब विवादित स्थल पर स्थित मस्जिद को नुकसान पहुंचाया गया। जब भारत सरकार के आदेश के अनुसार इस स्थल पर नये मंदिर का निर्माण सुरू हुआ तब मुसलमानों के विरोध ने सामुदायिक गुस्से का रूप लेना शरु किया।

 वर्ष 1992- 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ ही यह मुद्दा सांप्रदायिक हिंसा और नफरत का रूप लेकर पूरे देश में संक्रामक रोग की तरह फैलने लगा। इन दंगों में 2000 से ऊपर लोग मारे गए। मस्जिद विध्वंस के 10 दिन बाद मामले की जांच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया।

 वर्ष 2003- उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय पुरात्तव विभाग ने विवादित स्थल पर 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 तक खुदाई की जिसमें एक प्राचीन मंदिर के प्रमाण मिले। वर्ष 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायल की लखनऊ बेंच में 574 पेज की नक्शों और समस्त साक्ष्यों सहित एक रिपोर्ट पेश की गयी। भारतीय पुरात्तव विभाग के अनुसार खुदाई में मिले भग्वशेषों के मुताबिक विवादित स्थल पर एक प्रचीन उत्तर भारतीय मंदिर के प्रचुर प्रमाण मिले हैं। विवादित स्थल पर 50X30 के ढांचे का मंदिर के प्रमाण मिले हैं। 

वर्ष 2005- 5 जुलाई 2005 को 5 आतंकियों ने अयोध्या के रामलला मंदिर पर हमला किया। इस हमले का मौके पर मौजूद सीआरपीएफ जवानों ने वीरतापूर्वक जवाब दिया और पांचों आतंकियों को मार गिराया। वर्ष 

2010- 24 सितंबर 2010 को दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने फैसले की तारीख मुकर्रर की थी। फैसले के एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टालने के लिए की यगयी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे 28 सितंबर तक के लिए टाल दिया।

Friday, November 23, 2012

aur kasab abhi baki hai

देश में हर्ष की लहर है दर्जनों हिंदुस्तानियों के हत्यारे अजमल कसाब को फांसी लग गई है। देश की सर्वोच्च अदालत ने समस्त गवाहों और सबूतों की रोशनी मे कसाब को हत्या, देश के खिलाफ जंग छेडने, हत्या में सहयोग करने और आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के आरोप में फांसी की सजा सुनायी थी। कसाब को महज एक आंतकी मानने की भूल करना स्थिति और समस्या का अति सरलीकरण है। कसाब एक प्रतीक है उस विध्वंसकारी मानसिकता का जो सृजन के विरुद्ध है। विंध्वस जिसका धर्म, अराजकता जिसका उद्देश्य और कट्टरता उसका आधार है। ज्यादा बड़े गुनहगार उस मानसिकता का पोषण करने वाले हैं। कसाब एक गरीब परिवार नवयुवक था उसकी महत्वाकांक्षाओं में संपन्नता प्राप्त करना हो सकता था पर दर्जनों लोगों को बेवजह मौत के घाट उतारने की ख्वाहिश होना सम्भव नहीं लगता। तो कौन हैं वह शतिर लोग जो भटके हुए नवजवानों के बेलगाम ख्वाबों की ताबीर के लिए, उनके हाथों में हथियार थमा देते हैं। यकीनन इस सवाल के जबाब को तलाशे बैगर मुम्बई हमले में शहीद हुये जवानों को दी गई श्रद्धांजली पूरी नहीं होगी।
 
मुम्बई हमले के सूत्रधार आज भी गिरफ्त से बाहर हैं और नये कसाब तैयार करने में मशगूल हैं। दीगर है कसाब की स्वीकारोक्ति को प्राथमिक साक्ष्य मानने वाले न्यायालय ने उसके बयानों के विस्तार पर क्यो गौर नहीं किया? यदि किया भी तो दिए गये निर्णय की अवधारणा में उसका जिक्र क्यो नहीं हुआ? जिस तरीके से मुम्बई में मौत बरसा रहे आंतकी गिरोह को सेटेलाइट फोन के जरिये निर्देश दिये जा रहे थे, वह व्यवस्था बगैर सता प्रतिष्ठान की सहमति के संपन्न हो नहीं सकती। अबू जिंदाल की गिरफ्तारी और उसके बयान के पश्चात अब किसी प्रकार का संदेह नही रहना चाहिए। खैर लंबी कानूनी प्रक्रिया और संविधान प्रदत्त विकल्पों के बाद कसाब की सजा को अमली जामा पहना दिया गया। विडंबना है कि देश में भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था के लिये आंदोलन करने वाले, देश के अकूत काले धन को विदेश से वापस लाने के लिए राष्ट्रवादियों को अनशन करना पड़ता है और हत्यारे कसाब के खाने-पीने, सुरक्षा व्यवस्था आदि पर करीब पचास करोड़ रुपये व्यय किए जाते हैं। जिस जीवन की कल्पना आम पाकिस्तानी कभी नहीं कर सकता वह विलास, ऐश्वर्य उसे भारत सरकार उपलब्ध करा रही है। शायद उससे जेहाद की राह में फना होने के बाद कुछ ऐसी ही जन्नत के सुख का वायदा किया गया होगा।

कसाब ही नहीं भारत की अस्मिता को तार-तार करने वाले अनेक मास्टर माइंड और जेहादी सरकार-ए-हिंदुस्तान के मेहमान है। संसद पर हमले का मास्टर माइंड अफजल गुरु अब भी जेल में है। उसकी दया याचिका 2005 से लंबित पड़ी है। फांसी का फंदा उसका भी इंतजार कर रहा है। 1993 के मुंबई सीरियल बम कांड में लगभग 200 से अधिक निर्दोष लोगों की मौत और करीब 700 से अधिक व्यक्तियों को घायल करने वाले अभी भी सुप्रीम कोर्ट की लंबी न्यायिक प्रक्रिया का लुत्फ उठा रहे हैं। यही नहीं सन् 2000 में हिंदुस्तान की प्रतिष्ठा के गौरवशाली प्रतिमान लाल किले में घुसकर सेना के तीन जाबांजो की हत्या और 11 लोगों को घायल करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मुहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अभी भी सुनवाई हो रही है। अक्षरधाम मंदिर में सन 2002 में इंसानी खून की होली खेलने वाले हमलावरों की फांसी उच्चतम न्यायालय के निर्णय की बाट जोह रही है। दास्तान यहीं खत्म नहीं होती है। सन 2005 में दीपावली के अवसर पर दिल्ली के बाजारों में छाई खुशियों को मौत के मातम में बदलने वाले जेल में मौज कर रहे हैं। मुंबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेन में हुए विस्फोट से मरने वाले हिंदुस्तानी नागरिकों के परिजन आज भी न्याय की आस में निराश बैठे हैं। हो सकता है कि यह सब न्यायपालिका की जटिल प्रक्रिया के कारण हो किंतु सरकार और सियासतदानों को यह समझ लेना चाहिए कि यह महज मुकदमें भर नहीं है वरन, हर हिंदुस्तानी के कलेजे में धंसा हुआ खंजर है। वह जब पीछे मुड़ कर देखता है तो सवा अरब के मानव संसाधन के मध्य भी स्वयं को असहाय महसूस करता है।

26 नवंबर 2008 की वह शाम कोई भारतीय नहंी भूलेगा जब पाकिस्तान से आए आतंकी गिरोह ने भारत की आर्थिक नगरी मुंबई की आबोहवा में मौत का खौफ फैला दिया था। अंधाधुध गोलियों की बौछारें हर भारतीय के जिस्म की चाक कर रही थी। मकसद बस एक था। ज्यादा से ज्यादा नागरिकों को मौत के घाट उतार कर आतंकी ताकत की दहशत को समूची आबो हवा में फैलाना। आम अवाम की कानून व्यवस्था के प्रति आस्था को तोड़ कर समूची व्यवस्था को अस्थिर करने की कुत्सित कर्म था कसाब का हमला।

एक मायनों में यह भारतीय गणराज्य की प्रभुसत्ता को खुली चुनौती थी। एक युद्घ का ऐलान था दुनिया के सबसे बड़े जम्हूरी मुल्क के खिलाफ। उनको मिल रहे सीमा पार से निर्देशों को समाचार चैनलों पर सभी ने सजीव सुना था। वह रात बड़ी खूनी थी। देश ने हेेमंत करकरे जैसा जाबांज अफसर खोया, तो घटनास्थल सीएसटी स्टेशन पर कुछ यात्री ऐसे भी थे जिन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचाना नसीब नहीं हुआ। मौत और दर्द की उस चुनौतीपूर्ण घड़ी में सारा देश एक था। टीवी पर संपूर्ण राष्ट्र ने मुंबई की सडकों पर मौत बांटते इन दहशतगर्दों को देखा। ताज होटल में हो रहे धमाकों की आवाजों में देश ने शत्रु राष्ट्र की छद्म युद्घ की घोषणा को सुना।

लंबी वीरतापूर्ण कार्यवाही के पश्चात स्थिति पुनरू नियंत्रण में आई। मुंबई फिर अपनी गति में लौटी। मुंबई को अपने मिजाज में चलते देख कर देश खुश था, पर उसके साथ समूचे देशवासियों की आंखें डबडबाई हुई थी, हर पलक गीली थी, हर बांशिदें की आंखों के किनारो ने उस वक्त बेवफाई की, जब एनएसजी के शहीद कमांडो मेजर उन्नीकृष्णन और अन्य रणबांकुरे जवानों का पार्थिव शरीर तिरंगें में लिपटा हुआ भारत ही जवानी को शहादत की विरासत सौंप रहा था। कलेजा मुंह को आ रहा था। सारा देश फफक रहा था। पर वह आंसू भय के नहीं थे, न ही बेचारगी के थे। वह आंसू विश्वासघात होने के थे। अपनों को खोने के थे। वह आंसू उस चुनौती को स्वीकारने का संदेश थे जो उसे बिखेरने पर आमादा थी। ऐसे दर्दनाक मंजर की वजह कसाब की गुपचुप फांसी भारतीयों की आहत भावना व प्रतिशोध में दहकती चेतना को संतुष्ट नहीं कर पाई है। सवाल उठता है कि कसाब की फांसी इतनी गुपचुप तरीके से क्यों दी गई? दरअसल यह सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति का द्योतक है। दीगर है कि तानाशाह सद्दाम हुसैन को सार्वजनिक फांसी देकर अमेरिका विश्व समुदाय को वह सन्देश देने में सफल हो गया था जो सद्दाम की फांसी का सबब थी, दुर्भाग्य से भारत सरकार वह हिम्मत नहीं दिखा सकी। फिर डेथ वारंट जारी करने कोर्ट की प्रक्रिया है, इसे गुपचुप तरीके से नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह है कि मुंबई हमलें आपराधिक साजिश में150 आतंकी शामिल थे। 150 में से एक का खात्मा कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। कसाब के आतंक को पूरी दुनिया ने देखा था और उसकी मौत के मंजर के गवाह चंद लोग ही बन सके। खैर जैसे भी हो, फांसी का सिलसिला शुरू तो हुआ।

ऐसे नृशंस हत्यारों और नरसंहार की क्रूर रचना करने वाले आतंकियों के प्रति क्षमा का भाव रखना भी मानवद्रोह है, यह बात फांसी की सजा के विरोधियों और जीवन की अमूल्यता पर विश्वास करने वाले कथित मानवाधिकार कार्यकताओं को समझ लेनी चाहिए। यूं तो मौत सबसे डरावना भाव है और मौत का इंतजार उससे भी अधिक डरावनी स्थिति। लेकिन राष्ट्र के सवा अरब लोगों की सामूहिक चेतना कसाब जैसे दर्जनों निर्दयी और नृशंस हत्यारे कसाब को फांसी पर तड़पता देखकर ही संतुष्ट होगी। आशा है, वह दिन शीघ्र ही आएगा।

Sunday, July 18, 2010

SIMI terrorists held for planning armed attack on Jagannath Rath Yatra

The Ahmedabad Crime Branch Monday claimed to have arrested two armed operatives of the banned Students Islamic Movement of India (SIMI).

Police claimed Hasibarza alias Samim Firdosarza Saiyed, 34, of Patna in Bihar and Abufakir Abdulwali Abuali Siddique, 43, resident of Azamgarh in UP, were planning a terror strike in Gujarat, but did not provide details. An air gun, a country-made revolver and live cartridges were recovered from the arrested men, police said.

Crime Branch sleuths said they were tipped-off by security agencies about the two SIMI men, who were active in Ahmedabad for several years and were planning a terror strike in the state. They were riding a motorcycle near Prem Darwaza when they were arrested.

DCP, Crime Branch Himanshu Shukla claimed Hasibarza was sending young men from Maharashtra to Pakistan for terror training, for which he had earlier been arrested in Jalgaon. “He was also arrested for his role in the Howrah Bridge bombing and a few times in Patna for anti-social activities,” Shukla said. “Hasibarza is a hardcore SIMI member. He has been with the outfit since 1988-89, operating from different places. We have found out that he was working in Gujarat for the past seven to eight years, post the 2002 riots.”

Both Hasibarza and Siddique, along with their families, were staying at Faridabad Society in Jantanagar, Ahmedabad. According to Crime Branch, Hasibarza “was passing off under the cover of an employee of a garment store at Dariapur”.

Meanwhile, police in Bharuch received an anonymous letter threatening to target Tuesday’s Jagannath Rath Yatra. According to Bharuch S P Raghvendra Vats, the letter says the 2002 riots “will be avenged during the Rath Yatra”.