मुम्बई हमले के सूत्रधार आज भी गिरफ्त से बाहर हैं
और नये कसाब तैयार करने में मशगूल हैं। दीगर है कसाब की स्वीकारोक्ति को प्राथमिक
साक्ष्य मानने वाले न्यायालय ने उसके बयानों के विस्तार पर क्यो गौर नहीं किया? यदि
किया भी तो दिए गये निर्णय की अवधारणा में उसका जिक्र क्यो नहीं हुआ? जिस तरीके से
मुम्बई में मौत बरसा रहे आंतकी गिरोह को सेटेलाइट फोन के जरिये निर्देश दिये जा रहे
थे, वह व्यवस्था बगैर सता प्रतिष्ठान की सहमति के संपन्न हो नहीं सकती। अबू जिंदाल
की गिरफ्तारी और उसके बयान के पश्चात अब किसी प्रकार का संदेह नही रहना चाहिए। खैर
लंबी कानूनी प्रक्रिया और संविधान प्रदत्त विकल्पों के बाद कसाब की सजा को अमली
जामा पहना दिया गया। विडंबना है कि देश में भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था के लिये
आंदोलन करने वाले, देश के अकूत काले धन को विदेश से वापस लाने के लिए
राष्ट्रवादियों को अनशन करना पड़ता है और हत्यारे कसाब के खाने-पीने, सुरक्षा
व्यवस्था आदि पर करीब पचास करोड़ रुपये व्यय किए जाते हैं। जिस जीवन की कल्पना आम
पाकिस्तानी कभी नहीं कर सकता वह विलास, ऐश्वर्य उसे भारत सरकार उपलब्ध करा रही है।
शायद उससे जेहाद की राह में फना होने के बाद कुछ ऐसी ही जन्नत के सुख का वायदा किया
गया होगा।
कसाब ही नहीं भारत की अस्मिता को तार-तार करने वाले
अनेक मास्टर माइंड और जेहादी सरकार-ए-हिंदुस्तान के मेहमान है। संसद पर हमले का
मास्टर माइंड अफजल गुरु अब भी जेल में है। उसकी दया याचिका 2005 से लंबित पड़ी है।
फांसी का फंदा उसका भी इंतजार कर रहा है। 1993 के मुंबई सीरियल बम कांड में लगभग
200 से अधिक निर्दोष लोगों की मौत और करीब 700 से अधिक व्यक्तियों को घायल करने
वाले अभी भी सुप्रीम कोर्ट की लंबी न्यायिक प्रक्रिया का लुत्फ उठा रहे हैं। यही
नहीं सन् 2000 में हिंदुस्तान की प्रतिष्ठा के गौरवशाली प्रतिमान लाल किले में
घुसकर सेना के तीन जाबांजो की हत्या और 11 लोगों को घायल करने वाले लश्कर-ए-तैयबा
के आतंकी मुहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अभी भी सुनवाई हो रही है। अक्षरधाम मंदिर
में सन 2002 में इंसानी खून की होली खेलने वाले हमलावरों की फांसी उच्चतम न्यायालय
के निर्णय की बाट जोह रही है। दास्तान यहीं खत्म नहीं होती है। सन 2005 में दीपावली
के अवसर पर दिल्ली के बाजारों में छाई खुशियों को मौत के मातम में बदलने वाले जेल
में मौज कर रहे हैं। मुंबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेन में हुए विस्फोट
से मरने वाले हिंदुस्तानी नागरिकों के परिजन आज भी न्याय की आस में निराश बैठे हैं।
हो सकता है कि यह सब न्यायपालिका की जटिल प्रक्रिया के कारण हो किंतु सरकार और
सियासतदानों को यह समझ लेना चाहिए कि यह महज मुकदमें भर नहीं है वरन, हर
हिंदुस्तानी के कलेजे में धंसा हुआ खंजर है। वह जब पीछे मुड़ कर देखता है तो सवा
अरब के मानव संसाधन के मध्य भी स्वयं को असहाय महसूस करता है।
26 नवंबर 2008 की वह शाम कोई भारतीय नहंी भूलेगा जब
पाकिस्तान से आए आतंकी गिरोह ने भारत की आर्थिक नगरी मुंबई की आबोहवा में मौत का
खौफ फैला दिया था। अंधाधुध गोलियों की बौछारें हर भारतीय के जिस्म की चाक कर रही
थी। मकसद बस एक था। ज्यादा से ज्यादा नागरिकों को मौत के घाट उतार कर आतंकी ताकत की
दहशत को समूची आबो हवा में फैलाना। आम अवाम की कानून व्यवस्था के प्रति आस्था को
तोड़ कर समूची व्यवस्था को अस्थिर करने की कुत्सित कर्म था कसाब का हमला।
एक मायनों में यह भारतीय गणराज्य की प्रभुसत्ता को
खुली चुनौती थी। एक युद्घ का ऐलान था दुनिया के सबसे बड़े जम्हूरी मुल्क के खिलाफ।
उनको मिल रहे सीमा पार से निर्देशों को समाचार चैनलों पर सभी ने सजीव सुना था। वह
रात बड़ी खूनी थी। देश ने हेेमंत करकरे जैसा जाबांज अफसर खोया, तो घटनास्थल सीएसटी
स्टेशन पर कुछ यात्री ऐसे भी थे जिन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचाना नसीब नहीं हुआ। मौत
और दर्द की उस चुनौतीपूर्ण घड़ी में सारा देश एक था। टीवी पर संपूर्ण राष्ट्र ने
मुंबई की सडकों पर मौत बांटते इन दहशतगर्दों को देखा। ताज होटल में हो रहे धमाकों
की आवाजों में देश ने शत्रु राष्ट्र की छद्म युद्घ की घोषणा को सुना।
लंबी वीरतापूर्ण कार्यवाही के पश्चात स्थिति पुनरू
नियंत्रण में आई। मुंबई फिर अपनी गति में लौटी। मुंबई को अपने मिजाज में चलते देख
कर देश खुश था, पर उसके साथ समूचे देशवासियों की आंखें डबडबाई हुई थी, हर पलक गीली
थी, हर बांशिदें की आंखों के किनारो ने उस वक्त बेवफाई की, जब एनएसजी के शहीद
कमांडो मेजर उन्नीकृष्णन और अन्य रणबांकुरे जवानों का पार्थिव शरीर तिरंगें में
लिपटा हुआ भारत ही जवानी को शहादत की विरासत सौंप रहा था। कलेजा मुंह को आ रहा था।
सारा देश फफक रहा था। पर वह आंसू भय के नहीं थे, न ही बेचारगी के थे। वह आंसू
विश्वासघात होने के थे। अपनों को खोने के थे। वह आंसू उस चुनौती को स्वीकारने का
संदेश थे जो उसे बिखेरने पर आमादा थी। ऐसे दर्दनाक मंजर की वजह कसाब की गुपचुप
फांसी भारतीयों की आहत भावना व प्रतिशोध में दहकती चेतना को संतुष्ट नहीं कर पाई
है। सवाल उठता है कि कसाब की फांसी इतनी गुपचुप तरीके से क्यों दी गई? दरअसल यह
सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति का द्योतक है। दीगर है कि तानाशाह सद्दाम हुसैन को
सार्वजनिक फांसी देकर अमेरिका विश्व समुदाय को वह सन्देश देने में सफल हो गया था जो
सद्दाम की फांसी का सबब थी, दुर्भाग्य से भारत सरकार वह हिम्मत नहीं दिखा सकी। फिर
डेथ वारंट जारी करने कोर्ट की प्रक्रिया है, इसे गुपचुप तरीके से नहीं किया जा
सकता। दूसरी बात यह है कि मुंबई हमलें आपराधिक साजिश में150 आतंकी शामिल थे। 150
में से एक का खात्मा कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। कसाब के आतंक को पूरी दुनिया ने
देखा था और उसकी मौत के मंजर के गवाह चंद लोग ही बन सके। खैर जैसे भी हो, फांसी का
सिलसिला शुरू तो हुआ।
ऐसे नृशंस हत्यारों और नरसंहार की क्रूर रचना करने
वाले आतंकियों के प्रति क्षमा का भाव रखना भी मानवद्रोह है, यह बात फांसी की सजा के
विरोधियों और जीवन की अमूल्यता पर विश्वास करने वाले कथित मानवाधिकार कार्यकताओं को
समझ लेनी चाहिए। यूं तो मौत सबसे डरावना भाव है और मौत का इंतजार उससे भी अधिक
डरावनी स्थिति। लेकिन राष्ट्र के सवा अरब लोगों की सामूहिक चेतना कसाब जैसे दर्जनों
निर्दयी और नृशंस हत्यारे कसाब को फांसी पर तड़पता देखकर ही संतुष्ट होगी। आशा है,
वह दिन शीघ्र ही आएगा।